बुंदेलखंड के महामना गौभक्त सांसद स्वामी ब्रह्मानंद

अमित राजपूत
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।


स्वामी ब्रह्मानंद भारतीय संसद के पहले गेरुवा-वस्त्रधारी सांसद थे। ये पहली बार साल 1967 में चौथे लोकसभा चुनाव में जनसंघ पार्टी के टिकट पर चुनाव जीतकर संसद पहुँच थे। इसके बाद लगातार दूसरी बार पाँचवी लोकसभा में ये कांग्रेस पार्टी के टिकट पर पुन: सांसद रहे। इस प्रकार, ये सन् 1967 से 1977 तक लगातार सांसद रहे। एक सामान्य संसद सदस्य से इतर जब कोई सन्यासी लोकसभा में बैठता है तो इसके क्या मायने निकलते हैं इस बात को स्वामी ब्रह्मानंद की लोकसभा में उपस्थिति का अध्ययन और विश्लेषण करके समझा जा सकता है, जिनके सरोकारों से देश आज भी दो-चार हो रहा है।
दो प्रमुख कारणों से स्वामी ब्रह्मानंद को आने वाली पीढिय़ाँ कभी नहीं भुला सकती हैं। पहला, शिक्षा के लिए किये गये उनके भागीरथ प्रयास और दूसरा, गौरक्षा आंदोलन में उनकी भूमिका। स्वामी ब्रह्मानंद ऐसे संत रहे हैं, जिन्होंने अखाड़ा, आश्रम, परिषद या ऐसी किसी भी संस्था में रहकर ख़ुद को कैद नहीं किया। इन्होंने अपने सन्यास जीवन के प्रारंभ से ही स्वयं को सामाजिक सरोकारों से जोड़े रखा।

बुंदेलखण्ड में उत्तर प्रदेश के जनपद हमीरपुर की तहसील सरीला के बरहरा गाँव में 4 दिसंबर, 1894 को पैदा हुए स्वामी ब्रह्मानंद ने महज 23 वर्ष की अवस्था में सन्यास ले लिया और उसके बाद बारह वर्षों तक पूरे देश का भ्रमण किया। इस दैरान इन्होंने देश के जनवासियों की भावनाओं और उनकी समस्याओं को जड़ से समझा और पाया कि कुल समस्याओं की जड़ लोगों की अशिक्षा ही है। लिहाजा इसके लिए इन्होंने काम करना शुरू किया और फिर ख़ुद को इसमें झोंक दिया। इन्होंने सर्वप्रथम पंजाब में हिन्दी पाठशालाएँ खुलवायीं। बीकानेर सहित राजस्थान के कई जल-विहीन क्षेत्रों में बड़े-बड़े तालाब खुदवाये तथा किसानों और दलितों के उत्थान के लिए अनेक संघर्ष किये।

शिक्षा के प्रति ये बेहद रचनात्मक और गम्भीर थे। सांसद रहते हुए इन्हें जो धन मिलता था, उसकी पाई-पाई शिक्षा के लिए दान दे देते और ख़ुद भिक्षा माँगकर खाते थे। अपने पूरे सन्यासी जीवन में इन्होंने कभी भी अपने हाथ से पैसे की एक फूटी कौड़ी तक नहीं छुयी। स्वामी ब्रह्मानंद ने हमीरपुर के राठ में साल 1938 में ब्रह्मानंद इंटर कॉलेज, 1943 में ब्रह्मानंद संस्कृत महाविद्यालय तथा 1960 में ब्रह्मानंद महाविद्यालय की स्थापना की। इसके अलावा शिक्षा प्रचार के लिए अन्य कई शैक्षणिक संस्थाओं के प्रेरक और सहायक रहे हैं। वर्तमान में बुंदेलखण्ड के भीतर स्वामी ब्रह्मानंद के नाम पर कई कॉलेज और अनेक स्कूल संचालित किये जा रहे हैं। शिक्षा जगत में इनके सराहनीय योगदानों से प्रभावित होकर उत्तर प्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्री रहे चन्द्रभानु गुप्त ने एक सार्वजनिक समारोह में स्वामी ब्रह्मानंद को ‘बुंदेलखण्ड मालवीयÓ की उपाधि से सम्मानित किया था। इसके बाद से इन्हें बुंदेलखंड के मालवीय के तौर पर भी जाना जाता है।

उस कालखंड में स्वामी ब्रह्मानंद गौहत्या को लेकर चिंतित रहने वालों में सबसे आगे थे। साल 1966 में हुये अब तक के सबसे बड़े गौहत्या निषेध आंदोलन के ये जनक और नेता थे। प्रयाग से दिल्ली के लिए इन्होंने पैदल ही प्रस्थान कर दिया था, जिसमें इनके साथ कुछ और भी साधु-महात्मा थे। इनके नेतृत्व में गौरक्षा आंदोलन के लिए निकले जत्थे ने सन् 1966 की रामनवमी को दिल्ली में सत्याग्रह किया। सत्याग्रह के समय तक इनके साथ सत्तर के दशक में 10-12 लाख लोगों का हुजूम जुट गया था, जिससे तत्कालीन सरकार घबरा गयी और फिर स्वामी ब्रह्मानंद को गिरप्तार कर तिहाड़ जेल भेज दिया गया था।

वास्तव में गौ-वंश के प्रति इनके समर्पण का अंदाजा आप उनकी इस बात से ही लगा सकते हैं, जिसमें उन्होंने कहा था कि गौवंश की रक्षा के लिए मैं सब प्रकार का त्याग करने को तैयार हूँ। यहाँ तक कि मैं अपने प्राणों की आहूति भी दे दूँगा। उ. प्र. के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने इनके जन्मस्थान पर इनकी मूर्ति स्थापित की और उनके गाँव बरहरा का नाम बदलकर स्वामी ब्रह्मानंद धाम तथा विरमा नदी पर बने मौदहा बाँध को स्वामी ब्रह्मानंद बाँध के नाम से विभूषित किया। इसके अलावा भारत सरकार ने भी स्वामी ब्रह्मानंद के जीवन से प्रेरित होकर इनके 13वें निर्वाण दिवस यानी कि 13 सितम्बर, 1997 को उनके सम्मान में एक विशेष डाक टिकट जारी किया।

साल 1966 के गौ-रक्षा आंदोलन ने स्वामी जी को देशभर में विख्यात कर दिया था। आम जन में स्वामी जी के प्रति अगाध श्रद्धा जाग उठी थी। इसलिए जनसंघ से उनकी नजदीकियां बढ़ गईं। स्वामीजी ने संसद के भीतर गौरक्षा पर अपना ऐतिहासिक भाषण दिया उस समय संसद में जनसंघ के नेताओं ने उनका साथ नहीं दिया। इस बात से स्वामीजी खासा नाराज हुये। यहाँ से उनका जनसंघ से अलगाव प्रारंभ हुआ।

बाद में जब कांग्रेस ने सदन में बैंको के राष्ट्रीयकरण का मुद्दा उठाया तो जनसंघ ने इसका विरोध किया लेकिन स्वामी ब्रह्मानंद ने इसे राष्ट्रहित में बताया और इंदिरा सरकार का समर्थन किया। इसके बाद तो जनसंघ और स्वामी ब्रह्मानंद के बीच दूरियों की लकीर खिंच गयी। लेकिन इंदिरा गाँधी स्वामीजी की तरफ खिंची चली आयीं और फिर न सिर्फ़ स्वामी ब्रह्मानंद को वह कांग्रेस में ले आयीं बल्कि हमेशा स्वामीजी का मार्गदर्शन लेकर काम करती रहीं। आज स्वामी ब्रह्मानंद को भुला देने में सबसे आगे कांग्रेस पार्टी ही है।
उल्लेखनीय बात यह भी है कि भाजपा की औजस्वी नेत्री उमा भारती के राजनैतिक गुरू स्वामी ब्रह्मानंद ही थे।

अब जबकि स्वामी जी की 125वीं जयन्ती का वर्ष है, तब भी उनका कांग्रेस और भाजपा कहीं भी इसकी कोई चर्चा नहीं है। जबकि स्वामी जी का समाज के प्रति त्याग, प्रेरणा और उनका बलिदान इतना विराट है कि न सिर्फ भाजपा और कांग्रेस बल्कि सभी राजनीतिक दलों को उनकी शिक्षाओं और सिद्धान्तों का पालन करके आगे बढऩा चाहिए।
बहरहाल, अब सवाल यह है कि क्या भारतीय संसद का पहला गेरुआ-वस्त्रधारी सासंद जिसकी समावेशी रूप से उपादेय भूमिका बतौर संत भी रही और बतौर सांसद भी, यूँ ही भुला दिया जायेगा? चाहिए तो यह कि स्वामी ब्रह्मानंद की 125वीं जयन्ती को कांग्रेस और भाजपा सहित पूरी संसद ज़ोरदार तरीक़े से मनाये और उनके बताये रास्तों पर चलें, उनकी दूर-दृष्टि का मनन करे।

ध्यातव्य है कि वर्ष 2019 स्वामी ब्रह्मानंद की 125 जयन्ती का वर्ष है। इस अवसर पर हमें देश के सुदूर और उपेक्षित इलाकों में शिक्षा कैसे पहुँचे, इस पर विचार करना चाहिए तथा देश में गौरक्षा के प्रति सामाजिक और विधायी स्तर पर क्या किया जाये, इस पर व्यापक विचार करके उसे आगे बढ़ाना चाहिए। यह नागरिक-समाज और सरकार दोनों ही स्तर पर अपेक्षित है। स्वामी ब्रह्मानंद की 125वीं जयन्ती वाले इस वर्ष यही उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।