कर्तव्यपालन को परिवार के लिए आवश्यक मानते थे उपन्यासकार गुरुदत्त

डॉ. विमल कुमार जैन
दिल्ली कालेज दिल्ली


वैद्य गुरुदत्त का लौकिक एवं व्यावहारिक जीवन अध्ययन से प्रारम्भ होकर चिकित्सा पथ से चलता हुआ साहित्य की सर्जनात्मक विघा के चरम बिन्दु पर आकर स्थायित्व पा सका। यह प्रक्रिया एक विचित्र संयोग है। मध्यवर्गीय किन्तु यथालाभसंतोषी परिवार में जन्म लेने के उपरान्त लाहौर के आकर्षणपूर्ण वातावरण में भी संयत भाव से अध्ययन करते हुए जब आपने एम.एस.सी. की उच्च उपाधि प्राप्त की तो संसार निर्वहण के लिए आजीविका का प्रश्न उपस्थित हुआ और प्राध्यापन का कार्य ग्रहण किया। तदनन्तर काल के वात्याचक्र ने आपको अमेठी महाराज के राजदरबार में पहुचा दिया और वहां निजी सचिव के रूप में कार्य करते रहे। वहां के षड्यंत्रपूर्ण दूषित वातावरण से खिन्नमन हो, आप लखनऊ चले गये और आयुर्वैदिक चिकित्सा में पाण्डित्य प्राप्त कर चिकित्सा को ही जीविका का साधन बनाया। अब तक आप चालीस से भी अधिक शरत्—संवत्सर पार कर चुके थे। पुन: छ: वर्ष तक लखनऊ, लाहौर तथा दिल्ली में चिकित्सक के रूप में जीवन संवहित करते हुए सहसा साहित्य—सर्जन की ओर अभिमुख हुए और सन् 1942 में अपना प्रथम उपन्यास स्वाधीनता के पथ पर प्रकाशित कराया। तत्पश्चात् आप अबतक शताधिक उपन्यासों की रचना कर चुके हैं, जो आप के जीवन-वर्ष से भी तीन अधिक है तथा केवल तीस वर्ष की ललित प्रसूति है।
वैचारिक पृष्ठभूमि
गुरुदत्त के उपन्यासों में सामाजिक एंव राजनीतिक व्यग्ंय प्रचुर मात्रा में दृष्टिगोचर होते हैं सामाजिक क्षेत्र में सांस्कृतिक स्वस्थ परंम्पराओं के उल्लंघन, कुप्रथाओं के परिवेष्टन, उच्छुकल वातावरण, आभावग्रस्त निष्पीडन एवं स्वच्छन्द यौन-व्यभिचरण आदि पर अपने प्रखर आधात किए हैं। राजनितिक जगत में भी व्याप्त स्वार्थपरता, जघन्य कूटनीति, षड्यंत्रों की गुहा साज-सज्जा, कूटनीति, विषयानभिज्ञता, अहंमन्यता, स्वीय से उदासीनता और आदर्श के प्रति कुत्सा आदि कुत्सित कार्य-कलाप आपकी लेखनी की धार से बच नही सके हैं। साथ ही राष्ट्रीय भावनाओं के प्रकाशन, गत सांस्कृतिक वैभव के उद्घाटन तथा शुद्ध भारतीयता के पोषण की प्रतिध्वनि भी सर्वत्र गूंजती-सी प्रतिभासित होती है।
विज्ञान का विद्यार्थी जो वर्षो आध्यात्मिक मान्यताओं से उदासीन रहा, आर्य संस्कृति का इतना पक्षपाती, सामाजिक व्याधियों का कटु चिकित्सक एवं राजनीतिक विडम्बनाओं का विस्फोटक कैसे हुआ, यह उनके जीवन से पता चलता है। आपका परिवार एक अभाव-ग्रस्त परिवार था तथा आपके पिता आर्य समाज से प्रभावित एवं ईश्वरभक्त थे। अभाव ने इन्हें संयम का पाठ पढाया और निर्धनों को कठिनाईयों और सजाज में व्याप्त विषमताओं को समझने का अवसर दिया तथा पैतृक विचारधारा ने इन्हें संतुलित बनाए रखा। परन्तु उच्च शिक्षा ने इन्हें उदारता प्रदान की और समग्र आर्य संस्कृति का उपासक बना दिया। इन्होंने भारतीय और अभारतीय धर्म एवं मत-मतातरों का गम्भीर अध्ययन तथा साहित्य का विस्तृत पर्यायलोचन किया। साथ ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा मुस्लिम लीग जैसी साम्प्रदायिक संस्थाओं, कांग्रेस, जनसंघ आदि राजनीतिक दलों और साम्यवाद एवं समाजवाद आदि नीति, वादों का भी परिचय प्राप्त किया। शनै: शनै: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं जनसंघ से इनका घनिष्ठ सम्बन्ध होता गया और ये उसी परिप्रेक्ष्य में भारतीय स्वरूप को आंकने लगे तथा हिन्दू समाज के हितैषी के रूप में प्रसिद्ध हुए। शिक्षा प्राप्ति के उपरान्त लाला लाजपत राय जी से प्रभावित होकर ये जिस राष्ट्रभावना से ओतप्रोत हुए थे, उपयुक्त संस्थाओं से सम्बन्धित होने पर वह राष्ट्रीयता हिन्दुत्व की ओर मुड़ गईं। हिन्दू हितो के रक्षार्थ वे अनेक बार दण्डित हुए।
समाज एवं राजनीति में व्याप्त विडम्बनाओं और दम्भपूर्ण उपयुक्त सभी व्यापारों को इन्होने निकट से देखा था। अत: इन्हें उनसे घृणा सी हो गई और ये उनके कटु आलोचक हो गए। इन्होंने क्रान्तिकारियों के भी साथ रहकर उनकी हिंसा—वृत्ति,अनुशासनहीनता तथा स्वार्थपरता को देखा था, अत: सब ओर से मुख मोड़ ये साहित्य साधना में लगे और उपरिलिखित सामाजिक एंव राजनीतिक कुरुपताओं को अपनी लेखनी का लक्ष्य बनाया।
गुरुदत्तजी के कुछ उपन्यासों में परिवार एवं समाज का कुछ में राजनीतिक कुचक्रों को कुछ में सांस्कृतिक वैभव पर पतन का तथा कुछ में ऐतिहासिक घटनाओं का अपने दृष्टिकोण से चित्रण हुआ है। अत: इनके उपन्यासों को हम चार श्रेणियों में विभक्त कर सकते है सामाजिक उपन्यास, राजनीतिक उपन्यास, सांस्कृतिक उपन्यास तथा ऐतिहासिक उपन्यास।
इन सभी उपन्यासों में उपयुक्त विडम्बनाओं को कहीं—न—कहीं न्यूनाधिक रूप में चित्रित किया गया है, उन पर तीखे व्यंग्य कसे हैं। साथ ही उनके विरुद्ध अपने पक्ष को भी स्पष्ट किया गया है। अब हम इनके चतुर्विध उपन्यासों पर संक्षेपत: प्रकाश डालते हैं।
सामाजिक उपन्यास
गुरुदत्त के सामाजिक उपन्यासों में निम्न उपन्यास उल्लेखनीय है – उन्मुक्त प्रेम, पाणिग्रहण विकृत छाया, तब और अब, गुंठन, ममता, प्रवंचना, विद्यादान, भूल, द्रष्टा, पंकज, मैं न मानूं और स्नेह का मूल्य आदि। इन उपन्यासों में सामाजिक और पारिवारिक जीवन के स्पष्ट चित्र अंकित किये गये है। भारतीय समाज परिवारों से गठित हुआ है और परिवार सम्बन्धित व्यक्तियों से। अत: समाज के सुरूप के हेतु परिवार एंव व्यक्तियों का सुरूप होना अत्यावश्यक है।
वैद्य जी ने अपने उपन्यासों में परिवार को एक बन्धन माना है जहां सभी सदस्य नि:स्वार्थ भाव से देश, काल और स्थिति के अनुसार कर्तव्यपाश में बंधे रहते है। परन्तु उनकी दृष्टि में अब पाश्चात्य सभ्यता एंव भौतिक विकास ने मनुष्य को स्वार्थान्ध बना दिया है जिससे वह व्यक्तिगत स्वार्थ की बात अधिक सोचता है। अनीति करते हुए हिचकता नहीं है और प्रेमहीन वातावरण का प्रश्रय लेता है। अब न शिष्टाचार है, न त्याग, न श्रद्धा है न प्रेम। न पिता—पुत्रों के सम्बन्धों में कर्तव्य निष्ठा है और न पति पत्नी के प्रेम में निष्कपटता।
गुरुदत्त जी का संयुक्त परिवार में विश्वास है किन्तु आज उसका विघटन हो रहा है। उनके अनुसार इस विघटन के अनेक कारण हैं — उद्देश्यहीन शिक्षा, व्यक्तियों का अंग्रेजीकरण, पुरूष स्त्री पर पाश्चात्य प्रभाव, नर नारी का उन्मुक्त मिलन, पुरूष की स्वार्थ लोलुपता, स्त्री की स्वाधिकार प्रवृति एवं धनोपार्जन की लालसा तथा पारस्परिक सम्बन्ध विच्छेदन की भावना।
आज के समाज में धर्म की भावना कम हो गई है इसलिए भी विश्रृंखलता दृष्टिगोचर होती है। धर्म से तात्पर्य कर्तव्य से है। यदि सभी धर्म वाले अपने अपने कर्तव्य का पालन करे तो कोई संघर्ष नहीं होगा और जब संघर्ष न होगा तो सामाजिक संगठन ध्वस्त न होगा। सामाजिक और पारिवारिक संगठन के लिए सचाई और ईमानदारी की परम आवश्कता है। इसके बिना समाज तो सुचारू रूप से गतिशील रहेगा क्या, परिवार भी विघटित हो जाएगा। परन्तु आज इसका प्रभाव होता जा रहा है। साथ ही भ्रष्टाचार पनप रहा है, जिसने समाज की जड़ों में म_ा दे दिया है। लेखक के अनुसार समाज तभी सुगठित रह सकता है जब सभी वर्ग इन दुर्गुणों का त्याग कर अपने अपने कर्तव्य का पालना करें।
राजनीतिक उपन्यास
वैद्यजी के राजनीतिक उपन्यासों में उल्लेखनीय उपन्यास ये हैं— स्वाधीनता के पथ पर, पथिक, स्वराज्यदान, देश की हत्या तथा दासता के नये रूप। भारत में अंग्रेजी राज्य की पूर्णत: स्थापना सन 1857 की क्रांति के पश्चात ही हुई परन्तु विदेशी जुए को उतार फेंकने की बलवती इच्छा रूद्ध होने पर भी शान्त नहीं हुई। सन् 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुइ्र्, जिसमें लगभग बीस वर्षो तक स्वतंत्रता के संबंध में कोई स्वर नहीं उभरा। जब बालगंगाधर तिलक ने स्वराज को अपना जन्मसिद्ध अधिकार बताया और वीर सावरकर, भाई परमानंद तथा हरदयाल जैसे साहसी लोगो ने क्रांति का शंख फंूका तो समस्त भारत में स्वतंत्रता की लहर दौड़ गई। तदनन्तर गांधी जी ने कांग्रेस की बागडोर संभाली और लगभग तीस वर्ष सत्याग्रह आदि अनेक उपायों को अपनाते हूए सन 1942 में भारत छोड़ो का अंतिम वाला नारा लगाया। गुरूदत्त जी इस समस्त घटनाचक्र से अवगत थे। इस पर इसका क्रिया—प्रतिक्रिया के रूप में प्रभाव पड़ा और इन्होंने अपना प्रथम उपन्यास स्वाधीनता के पथ पर लिखा।
इस उपन्यास में कांग्रेस में गरम और नरम हिंसक और अहिसक दोनों दलों की मीमांसा करते हुए वास्तविक मार्ग के निर्णय का प्रयत्न किया गया है। साथ ही अंग्रेजो द्वारा दमन-चक्र, जनता पर अत्याचार, निरपराधियों को दण्ड तथा उपहासास्पद विधियों के खोखलेपन पर भी प्रकाश डाला गया है। स्वाधीनता के पश्चात् देश में कौन सा तंत्र हो इसका भी विवेचन हुआ है और साथ ही इस प्रश्न का भी उत्तर दिया गया है कि राजनीति में अध्यात्म का क्या स्थान है। पथिक उपन्यास में युवकों के प्रति नवचेतना का आह्वान है। इसमें अंग्रेजों की हिन्दू—मुस्लिम विभाजन की नीति पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। जिसके शिकार अनेक लोग हुए है। परन्तु गुरुदत्तजी इसे कृत्रिम मानते हैं तथा पथिक और सलीमा के शुद्ध प्रेम द्वारा इसे प्रमाणित करते हैं। स्वराज्य दान में स्वराज्य कैसे मिला, इसका समाधान किया गया है और जलियावाला बाग के हत्याकाण्ड से लेकर स्वराज्य प्राप्ति तक की घटनाओं का चित्र अंकित किया गया है। इसमें शासकीय कूटनीति एवं पुलिस के अत्याचारों का भी पर्याप्त विवेचन हुआ है। विश्वासघात उपन्यास में बंगाल की मुस्लिमलीगी सरकार के हिन्दुओं पर अत्याचार की कहानी तथा देश की हत्या में पंजाब के विभाजन से हिन्दुओं की हत्या एंव दुर्दशा का चित्र अंकित है। साथ ही उनके संरक्षण में असमर्थ नेताओं को भी दोषी ठहराया गया है। दासता के नये रूप में स्वराज्य प्राप्ति के पश्चात् अंग्रेजों के चले जाने पर भी भारतीयों की मानसिक दासता पर व्यंग्य चित्र चित्रित किये गये हैं। इस प्रकार इन उपन्यासों में सन् 42 की क्रान्ति के पश्चात् की राजनीति पर प्रकाश डाला गया है तथा लेखक ने शासक, नेता, हिन्दू, मुसलमान, पुलिस कर्मचारी आदि सभी सम्बन्धित व्यक्तियों पर मार्मिक चोट की है।
सांस्कृतिक कृतियां
लेखक के प्रमुख सांस्कृतिक उपन्यास ये है — धर्म, संस्कृति और राज्य, जमाना बदल गया, दिग्विजय, पूर्वग्रह, वाम मार्ग, जीवन—ज्वार, जात न पूछे कोय, बनवासी, स्खलन और बहती रेता आदि। इन सांस्कृतिक उपन्यासों में पुरातन भारतीय संस्कृति का उज्ज्वल रूप प्रदर्शित किया गया है तथा साथ ही उसको बौद्धों की निष्क्रियता और प्रतिक्रियावादिता तथा वाममार्गियों की दुश्चरित्रता द्वारा दूषित करने के प्रयास पर क्षोभ भी व्यक्त किया गया है। मुस्लिम एवं अंग्रेजी संस्कृति के सम्मिश्रण से तो लेखक को अत्यन्त निराशा हुई है, क्योंकि इसने अधिकांश भारतीय जन—मानस में एक क्रान्ति सी ला दी है, जिससे वह पुरातन के प्रति आस्थाहीन हो गया है तथा सब कुछ नवीन परिवेश में देखना चाहता है।
दिग्विजय उपन्यास में वैदिक संस्कृति का चित्रण हुआ है, बहती रेवा मे बौद्ध संस्कृति द्वारा वैदिक संस्कृति पर किये गये आघातों का अंकन है। वाम मार्ग में चार्वाक एंव कापालिकों द्वारा अनैतिकता के प्रचार से उत्पन्न दुर्गन्ध की चर्चा है तथा स्खलन, जीवन ज्वार और जात न पूछे कोय आदि में आधुनिक समाज में व्याप्त कुसंस्कार, भ्रष्टाचार तथा वासनाजन्य प्रेम के चित्र अंकित हैं। प्राचीन काल में बाह्य आक्रान्ताओं तथा भारतीय अनास्थावादी विश्वासों ने भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात किया था, वहां आधुनिक युग में पाश्चात्य सभ्यता के भौतिकवादी दृष्टिकोण और साम्यवाद के अध्यात्महीन तथा विध्वंसकारी अराष्ट्रीय प्रचार से समाज का जो पतन हुआ है। इससे अपनी संस्कृति अपरिचित—सी प्रतीत होने लगी है। यही इन उपन्यासों में कथावस्तु का केन्द्रबिन्दु है। इसके लिए लेखक ने पात्रों का चयन सभी वर्गों से किया है।
ऐतिहासिक उपन्यास
गुरुदत्तजी के ऐतिहासिक उपन्यासों में उल्लेखनीय उपन्यास है— पुष्यमित्र, विक्रमादित्य साहसांक, लुढकते पत्थर, पत्रलता और गंगा की धारा आदि। इन उपन्यासों में गुरुदत्तजी ने ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर कथावस्तु का संगठन किया है, परन्तु इन्होंने पुरातन घटनाओं के प्रकाश में आधुनिक शासकों एवं नेताओं को सचेत करने का प्रयास भी किया है। पुष्यमित्र और पत्रलता में बौद्ध मान्यताओं और प्रणालियों का चित्रण करते हुए उन्हें देशहित के लिए अहितकर बतलाया है। इनका कथन है कि इतिहास से शिक्षा लेनी चाहिए कि पूर्वकृत भूलों की पुनरावृत्ति न की जाय। इसके अनुसार दूष्ट को दण्ड देना चाहिए और सर्वत्र अहिंसा, शान्ति एवं पंचशील से काम लेना श्रेयस्कर नहीं है। लुढ़कते पत्थर में अशोक, पुष्यमित्र में वृहद्रथ और विक्रमादित्य में रामगुप्त अपनी इन्हीं नीतियों के कारण शासन को विनाश की ओर ले गये।
लेखक ने इनमें राजा और प्रजा के पारस्परिक सम्बन्धों पर भी प्रकाश डाला है तथा राजा के हित और सुरक्षा के उपाय भी बतलाये हैं। इनकी मान्यता है कि राजा राज्य का सेवक है। राज्य तो प्रजा का न्यास है, अत: राजा का कर्तव्य है कि उसे पवित्र आचार और नीति के पालन द्वारा अक्षुण्ण बनाए रखे। दुराचारी और दुर्नीतिग्रस्त शासक राज्य का अधिकारी नहीं है, वह किसी भी समय अपदस्थ किया जा सकता है। प्रजा के हितों की रक्षा ही तो सुशासन है। यदि राजा वास्तव में प्रजा का प्रतिनिधित्व नहीं करता तो वह शासन का अधिकारी नहीं है। प्रजा के अतिरिक्त अन्य देशों से सम्बन्ध में राजनीति को परिस्थिति के अनुसार व्यवहार में लाना ही शासक का कर्तव्य है। शत्रु की कुटिल और दुष्ट समझकर भी शान्ति का राग अलापना राजा, राज्य और प्रजा सभी के लिए हानिकर है।
इन उपन्यासों में प्राय: सभी पात्र ऐतिहासिक और राजपुरुष है। उनमें शूर और कायर, उच्च और नीच दोनों ही कोटियों के हैं। सम्राट् हर्ष, राणा प्रताप, गुरु अर्जुन देव, विक्रमादित्य तथा चन्द्रगुप्त शूर और उच्च कोटि के पात्र तथा ग्रहवर्मन, बृहद्रथ और मानसिंह कायर एवं निम्न कोटि के। ये देानों पक्षों के प्रेरणास्रोत हैं। आज हमें भी इतिहास के इसी प्रकाश में अपनी राजनीति का पग सावधानी से उठाना चाहिए।
सामान्य विशेषताएं
गुरुदत्तजी आदर्शवादी हैं, अत: उनके समस्त उपन्यास साहित्य में आदर्श की ग्राह्यता पर बल दिया गया है। आप भारतीय आर्य—संस्कृति तथा उदार हिन्दुत्व के दृढ़ पक्षपाती हैं। यही कारण है कि आपने सर्वत्र उसके उज्ज्वल रूप को ही प्रस्तुत किया है। और जहां भी बाह्य प्रभाव या व्यक्ति—व्यभिचार से उसमें कोई मलीनता आई है, उसको प्रकाशित करके परिमार्जित करने का पथ प्रदर्शित किया है। बाहर से आने वाले शक, हूण, मुसलमान एंव अंग्रेजों के प्रभाव से तथा देश में ही उद्गत बौद्ध एंव वाममार्गियों की मान्यताओं से जो संस्कृति और विचार—धारा में भिन्न वातावरण बना, उसे राष्ट्र और समाज के लिए अहितकर अतएव हेय बतलाया है। साथ ही गत से शिक्षा लेकर वर्तमान और आगत के सुधार की ओर संकेत भी किया है।
सभी उपन्यासों में कल्पना को पर्याप्त महत्व मिला है। पात्र सभी वर्गों, समाजों एंव धर्मों के हैं परन्तु सर्वत्र सामंजस्य की कामना दृष्टिगोचर होती है। कल्पना के आधार पर सभी में समन्वय लाने को प्रयत्न किया गया है अत: साहित्य में दर्शन के दर्शन भी हमें प्राय: उपलब्ध होते है। चरित्र चित्रण की दृष्टि से भी प्राय: सभी उपन्यास शैली साम्य रखते हैं। भाषा में भी एक प्रवाह है, परन्तु संस्कृति और दर्शन पर बल होने के कारण कहीं—कहीं औपन्यासिक प्रवाह बाधित हुआ है और संभवत: इसीलिए इतने विशाल साहित्य के प्रणेता होते हुए भी आप अब तक साहित्य पारखियों से उपेक्षित रहे है।