शशिप्रभा तिवारी
लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं।
पहाड़ों, घाटियों, नदियों, झरने, जंगल और हरी-भरी वादियों वाले झारखंड की प्राकृतिक सुष्मा आकर्षक है। यहां की हसीन वादियों में आदिवासी समुदाय के संगीत और मांदर के थाप गूंजते रहते हैं। इसके अलावा, अन्य समुदायों के लोग, लोक और शास्त्राीय कलाओं से भी जुड़े हुए हैं। हालांकि, इस सच से इंकार नहीं किया जा सकता कि झारखंड में अब तक शास्त्राीय संगीत व नृत्य के लिए वह परिवेश तैयार नहीं हो पाया, जैसी अपेक्षा थी।
बहरहाल, यह महत्वपूर्ण है कि पिछले कुछ वर्षाें से झारखंड की राजधानी रांची में झारखंड महोत्सव का आयोजन हो रहा है। इसी क्रम में चतरा के सांसद सुनील सिंह ने व्यक्तिगत प्रयास से ईंटखोरी में संगीत-नृत्य महोत्सव का आयोजन शुरू करवाया है। इन परिस्थितियोें के बावजूद जमशेदपुर, रांची, बोकारो, धनबाद आदि शहरों में रहकर और इन शहरों से बाहर आकर बहुत से कलाकारों ने कठिन परिश्रम से अपनी प्रतिभा को संवारा है। ऐसे कलाकारों की श्रृंखला काफी लंबी है। यहां झारखंड के कुछ शास्त्राीय नृत्य संगीत व नृत्य के कलाकारों के सफर की कहानी पेश है।
संस्कृति मंत्रालय के अधीन कार्य करने वाली केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी के पूर्व सचिव जयंत कस्तुअर रहे हैं। प्रशासनिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए उन्होंने कथक नृत्य का रियाज और मंचीय प्रस्तुतिकरण जारी रखा। कथक के प्रति अपने रूझान के संदर्भ में जयंत कस्तुअर बताते हैं कि मेरे घर में साहित्य और संगीत का माहौल था। मेरी बहनों को नृत्य सिखाने गुरूजी घर पर आते थे। जब वह नृत्य सीखतीं थीं, तब कमरे में मेरी दादीमां मुझे गोद में लेकर बैठती थीं। इस तरह बहुत छुटपन में कथक से पहला परिचय हुआ। उनदिनों जमशेदपुर में टाटा कंपनी की वजह से कलाकारों को मंच मिल जाता था।
कथक के जानेमाने कलाकार जयंत कस्तुअर ने बनविहारी आचार्य और इंद्र कुमार पटनायक से कथक की आरंभिक शिक्षा ग्रहण की। बाद में, दिल्ली पदार्पण के दौरान उन्हें गुरू दुर्गा लाल का सानिध्य मिला। वह बताते हैं कि साठ के दशक में कोलकाता म्यूजिक कॉन्फ्रंेस, पटना व गया के दुर्गा पूजा समारोह में मैं अपने नृत्य का प्रदर्शन कर चुका था। मुझे याद आता है कि कोलकाता में नृत्य करना मेरे लिए यादगार पल था। मेरे नृत्य के बाद उस्ताद बड़े गुलाम अली खां साहब का गाना था। कॉलेज के दिनों में मैं उमा शर्मा के साथ कृष्ण लीला पेश करता था। तब कृष्ण मैं ही बनता था। धीरे-धीरे मैं गुरूजी के सानिध्य में एकल नृत्य करने को प्रेरित हुआ।
कथक को अपना जीवन मानने वाले नर्Ÿाक जयंत कस्तुअर मानते हैं कि नृत्य के बिना जीवन निरर्थक है। कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ही मुझे लगने लगा था कि अब मेरा करियर डांस ही रहेगा। हालांकि, जैसा आम भारतीय परिवारों में होता है। मेरे इस फैसले से माता-पिता काफी नाराज हुए। लेकिन परिवार के अन्य सदस्य यानि बड़े भइया और दीदी लोगों ने पूरा साथ दिया। इसके बाद, गुरू दुर्गा लालजी के सानिध्य में तीन-चार घंटे का रियाज रोजाना होने लगा। उस समय मैं लखनऊ, जयपुर और बनारस तीनों घरानों की बारीकियों को सीखने के लिए आतुर था। मुझे लगता है कि शास्त्राीय कलाएं लोकप्रिय कलाएं नहीं बन सकतीं। हम गुरूकुल परंपरा में समर्पित शिष्य-शिष्याओं को कलाकार बनाएं और दर्शक-श्रोताओं की संख्या बढाएं।
जमशेदपुर में ही पली-बढ़ी कथक नृत्यांगना हैं सुमिता शर्मा प्रधान। वह जयपुर घराने की अच्छी कलाकार हैं। इनदिनों वह दिल्ली में रहती हैं। वह संस्कार भारती से वर्षों से जुड़ी हुई हैं। उन्होंने परंपरागत कथक नृत्य करने के साथ उसमें हिंदी साहित्य के कवियों को लेकर अनेकों नृत्य रचनाएं की हैं, जो बहुत लोकप्रिय रही हैं। पिछले दिनों उज्जैन में आयोजित सिंहस्थ कुंभ महापर्व में आयोजित नृत्य समारोह में उन्होंने रामचरितमानस के प्रसंग को प्रस्तुत कर समंा बांध दिया। सुमिता शर्मा ने मधु अखौरी और बनबिहारी आचार्य से कथक के आरंभिक ककहरे को सीखा है। बाद के दिनों में वह जयपुर घराने के गुरू कंुदनलाल गंगानी के संपर्क में रह कर नृत्य साधना की हैं।
अपनी कला यात्रा के बारे में कथक नृत्यांगना सुमिता शर्मा बताती हैं कि मैं कथक नृत्यंागना उर्मिला नागर के नृत्य से बहुत प्रभावित थी। नानाजी देशमुख के घर आना जाना था। जब मैं एमए कर रही थी। मेरे नृत्य से प्रभावित होकर नानाजी देशमुख मुझे दिल्ली नृत्य सिखाने के लिए लेकर आए। मैं राजधानी दिल्ली अस्सी के दशक में आई। उनदिनों कथक केंद्र के कार्यक्रम की उद्घोषणा जसवंत सिंह करते थे। उन्होंने मुझे केशव कोठारीजी से मिलवाया। मैं केंद्र गई तो केशवजी ने कहा कि आप सभी गुरूओं के क्लास में बैठकर पहले देखो। किसी से कुछ कहना नहीं। मैंने गुरूजी यानि पंडित कुंदनलाल गंगानी के क्लास में सबसे अंत में गई। वहां मैंने उनका गत भाव देखा। मैं आश्चर्य चकित थी। उनके क्लास से नीचे आ रही थी, तभी फतह भइया से मुलाकात हुई। वह दोबारा गुरुजी के पास लेकर गए। उन्होंने कहा कि गुरुजी, सुमिता आपसे कथक सीखना चाहती है। इस परिचय के बाद मेरा गंडा-बंधन हुआ। फिर, गुरूजी से नृत्य सीखने की औपचारिक शुरूआत हुई। गुरूजी की एक बात हमेशा याद रहती है-देख्या, परख्या और सीख्या।
कथक की युवा नृत्यांगना हैं गौरी दिवाकर। वह भी जमशेदपुर की रहने वाली हैं। उन्होंने सुमिता चौधरी से कथक की आरंभिक शिक्षा ली है। वह नब्बे के दशक में राजधानी दिल्ली आईं। फिर, यहीं की होकर रह गईं। यहां उन्होंने कथक केंद्र में पंडित बिरजू महाराज और गुरू जयकिशन महाराज से कथक की बारीकियों को सीखा है। गौरी दिवाकर बताती हैं कि जब मैं कथक नृत्य सीख रही थी। तब मुझे कथक के घरानों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। यह तो दिल्ली आकर पता चला कि कथक के इतने घराने हैं। कथक केंद्र में सीखने के दौरान ही केंद्र के रिपटरी से जुड़ने का अवसर मिला। उनदिनों महाराजजी का बाई-पास ऑपरेशन हो रखा था। रिपटरी का काम जयकिशन महाराज जी देख रहे थे। वह जोश से भरे रहते थे और चार-चार घंटे लगातार रियाज चलता रहता था।
वरिष्ठ नृत्यांगना अदिति मंगलदास की डांस कंपनी के साथ गौरी दिवाकर लंबे समय तक जुड़ी रहीं। अपने उस अनुभव के बारे में गौरी बताती हैं कि सन् 1998 में मैं अदिति दीदी से जुड़ी। उनके सौंदर्यबोध और एक-एक चीज के प्रति संवेदनशीलता ने मेरी सोच को बदल दिया। मुझे लगता है कि संघर्ष तो कलाकार के जीवन का हिस्सा होता है। मैं अदिति दीदी के ग्रुप के साथ डांस करती थी। लोग यह मानने लगे थे कि मैं सिर्फ ग्रुप डांसर हूं। लेकिन गु्रप में भी जो बेहतरीन कलाकार होते हैं, वह उभरकर सामने आते ही हैं। जब मैंने अपने इस सवाल को कई गुरूओं के सामने रखा तो सबने यही कहा कि हम सभी ने शुरूआत ग्रुप में ही किया है। धीरे-धीरे एकल नृत्य की ओर अग्रसर हुए।
गौरतलब है कि कथक नृत्यांगना गौरी दिवाकर ने कई एकल नृत्य रचनाएं की हैं। हाल ही में उन्होंने ‘हरि हो गत मेरी‘ नृत्य रचना राजधानी दिल्ली में पेश की थी। नृत्य रचना ‘हरि हो गति मेरी‘ मंे कवि सैयद मुबारक अली बिलग्रामी, हजरत फजलूल हसन अथवा मौलाना हजरत मोहानी, मलिक मोहम्मद जायसी व मियंा वाहिद अली की रचनाओं पर आधारित थी। नृत्य रचना चार खंडों में विभाजित थी-रेजोनेन्स-गूंज, शैडो ऑफ इच अदर-एक दूसरे परछाईं, एक व हरि हो गति मेरी। नृत्य रचना में कृष्ण में डूबी नायिका की आत्मशोध की अनंत यात्रा का चित्राण किया गया है। वह भक्ति के साथ अनंत की तलाश में इंतजार की अनंत पीड़ा की वेदना, संवेदना और आनंद को अभिव्यक्त करती है। नायिका के हर भाव को दर्शाने का सफल प्रयास। इसे वह अगस्त महीने में होने वाले ‘एडिन्बर्ग फ्रेंच फेस्टीवल‘ में प्रस्तुत करेंगी।
गौरी दिवाकर कहती हैं कि कथक अथाह समुद्र है। इसमें कथक की परंपरागत छवि को बरकरार रखते हुए, उसमें नए साहित्य पर नृत्य किया जाना चाहिए। इसमें संवाद बहुत आसान है। यह चुनौतीपूर्ण है। कथक नृत्य में कथा कहने की जो परंपरा है, उसमें राधा-कृष्ण या शिव-पार्वती के अलावा, जो समकालीन साहित्य रचा जा रहा है। उसे भी नृत्य में शामिल किया जाए तो युवाओं को जोड़ना आसान होगा।
बोकारो शहर के निवासी हैं बांसुरीवादक चेतन जोशी। वह संगीत को अपना जीवन मानते हैं। किसी वजह या व्यस्तता के कारण अगर वह रियाज नहीं कर पाते या बांसुरी एक दिन भी नहीं बजा पाते तो उन्हें लगता है कि आज उनसे कोई बहुत बड़ी गलती हो गई है। उनका मन उदास हो जाता है। बांसुरीवादक चेतन जोशी बताते हैं कि मैंने शुरू में पंडित ओंकारनाथ ठाकुर के शिष्य आचार्य जगदीश से बांसुरी वादन सीखा। उसी दौरान इलाहाबाद में आयोजित अखिल भारतीय संगीत प्रतियोगिता में भाग लेने गया। वहां पंडित भोलानाथ प्रसन्ना से परिचय हुआ। तब मैंने पहली बार बड़े आकार का बांसुरी देखा था। उस परिचय के बाद मैंने पंडित भोलानाथ प्रसन्ना का शिष्यत्व ग्रहण किया। उनके न रहने पर मैं मुम्बई गया और पंडित रघुनाथ सेठ से मार्ग दर्शन लिया। इसके बाद, मैंने कुछ सालों तक पंडित अजय चक्रवर्ती से भी सीखा। मुझे लगता है कि कलाकार को अगर आगे बढ़ने की चाहत है तो सीखने का शौक बराबर बनाए रहना चाहिए।
युवा कलाकारों को शास्त्राीय संगीत और नृत्य के प्रति रूझान पैदा करने के संदर्भ में बांसुरी वादक चेतन जोशी कहते हैं कि युवाओं की दो श्रेणी है। एक जो परफॉर्मर बनना चाहते हैं और दूसरे जो अच्छे श्रोता बन सकते हैं। मेरा मानना है कि अगर आप किसी कार्यक्रम में शास्त्राीय कलाओं को देखने या सुनने जाते हैं तब आप अपनी पांच हजार साल पुरानी परंपरा से जुड़ते हैं। हमारी परंपरा इतनी सशक्त है कि गांव या शहर कहीं भी बांसुरी वादन पेश करता हूं तब वाह! या क्या बात है! सहज ही सुनने को मिलता है। इसका मतलब तो यही है कि लोगों को शास्त्राीय संगीत पसंद आता है या अच्छा लगता है।
सितार वादिका पांचाली नंदी रांची में पली-बढ़ी हैं। वह राजधानी दिल्ली में रहकर पंडित देबू चौधरी से सितार वादन सीखती रही हैं। वह कई शहरों में अपना कार्यक्रम पेश कर चुकी हैं। धनबाद की कथक नृत्यांगना प्रीति सिन्हा इनदिनों इंडोनेशिया में हैं।
वहां वह भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् के द्वारा संचालित सेंटर में कार्यरत हैं। इनके अलाव, केडिया बंधुओं का नाम आज पूरे देश में सम्मान से लिया जा रहा है। सितार वादक मोर मुकुट केडिया और सरोद वादक मनोज केडिया की जोड़ी जब जुगलबंदी पेश करती है तो पंडित रविशंकर और उस्ताद अली अकबर खां की याद ताजा हो आती है। यह झारखंड और हमारी सांस्कृतिक परंपराओं के लिए गर्व की बात है।
दरअसल, संस्कृति की खुशबू ही सबको सराबोर करती है। कलाओं के रंगीन संसार में प्रयोग और प्रयास की जरूरत हमेशा रही है। यह सतत् प्रक्रिया है। तभी कलाएं देश की सीमाओं को लांघकर अब अंतरराष्ट्रीय फलक पर दमक रही हैं। यह कलाकारों की कोशिशों का परिणाम है कि आज हर प्रदेश में शास्त्राीय कलाओं को गुरूजन सीखा रहे हैं और युवा व बाल कलाकार इसे मन से सीख रहे हैं। यह आशा की जा सकती है कि झारखंड के लोग शास्त्राीय कलाआंे के प्रति अपनी आस्था और प्रेम को और गंभीर करें ताकि उस भूमि से भी पंडित रविशंकर या पंडित हरिप्रसाद या पंडित शिव कुमार शर्मा जैसे रत्न चमकें।