आज भी प्रासंगिक है रामचरितमानस

उमेश पाठक
लेखक सूकरक्षेत्र शोध संस्थान, उ.प्र. से संबंद्ध हैं।


भारतीय संस्कृति के सजग प्रहरी गोस्वमी तुलसीदास जी कालजयी व्यक्तित्व व कृतित्व के धनी हैं। जब उन्हें व उनके राम चरित मानस को कालजयी मान लिया गया है तब उनकी प्रासंगिकता बताने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है। फिर वर्तमान भी तो स्थिर नहीं है। वर्तमान समय के सबसे छोटे मापक प्राण या माइक्रोसेकण्ड में भूत हो जाता है। तब वर्तमान की सर्वमान्य अवधारणा क्या हो सकती है? जैसे निराकार का अस्तित्व है वैसे ही वर्तमान भी मान्य है। आज के विमर्श में वर्तमान का आशय वि सं. 2075 या सन् 2018 और उसके आसपास व्यतीत हुए कालक्रम में घटित परिस्थितियों में तुलसी और मानस का व्यापक चिन्तन करना है। तुलसी और उनके साहित्य का समाज से घनिष्ट सम्बन्ध है। इस पर कुछ शंका आज अवश्य प्रकट की जा रही है।

तुलसीदास जी का साहित्य केवल सनातनी हिन्दुओं के लिए ही नहीं, विश्वभर के विद्वान शोधार्थियों के लिए भी उपयोगी है। तभी तो विश्वभर के विविध विश्वविद्यालयों में तुलसीदास पर अनेक शोध उपाधियां दी जा चुकी हैं। एक आंकड़ा प्रकाशन व विक्रय संस्थाओं से भी एकत्र किया जा सकता है कि वे तुलसीदास के ग्रन्थों की कितनी प्रतिमां प्रतिवर्ष छापते व विक्रय करते हैं। इसके अतिरिक्त तुलसीदास द्वारा सृजित रामचरितमानस की कथा आयोजन अनगिनत लोगों को रोजगार प्रदान करता है। प्रसारण माध्यम टी.वी. चैनल कितनी धनराशि इससे अर्जित करते हैं यह पता लगाना कठिन नहीं है। नामधारी रामचरितमानस कथावाचकों के अतिरिक्त तुलसीदास जी की रामचरितमानस का अखण्ड पाठ विश्वभर में कितने स्थानों पर हुआ, क्या यह धर्म और जाति आधारित गणना करने वाली सरकार बता सकती है?

रामचरितमानस मात्र साढ़े चार शताब्दी में युगों से जनमानस में स्थापित वाल्मीकि रामायण से अधिक लोकप्रिय हो गई। रामचरितमानस को रामायण कहा और समझा जाने लगा। वीर विनायक दामोदर सावरकर जी ने श्रीराम महोत्सव समारोह में इग्लैण्ड में कहा था — अगर मैं इस देश का अंग्रेज डिक्टेटर होता तो सबसे पहले यह काम करता कि महर्षि वाल्मीकि द्वारा लिखित रामायण को जप्त करने का आदेश जारी करता। क्या यह बात रामचरितमानस पर लागू नहीं होती? तुलसीदास जी का मानस कलियुग के दोषों को नष्ट कर सबका मंगल करने वाला ही नहीं है, यह तो निरंतर बहने वाली वह निर्मल एवं पवित्र नदी है जिसमें मांसाहारी रावण जैसे मगरमच्छ और शूर्पनखा जैसी मछलियां भी हैं परंतु फिर भी ब्रह्मानंद के आकांक्षी उसमें उतरते हैं, गोता लगाते हैं और अपने हृदय-पात्रों में भरकर जय जय सुरनायक जन सुखदायक या नमामि भक्त वत्सलं अथवा भए प्रकट कृपाला दीन दयाला का गायन तन्मय होकर करते हैं। मंगल भवन अमंगल हारी तो पिंजरे के तोता-मैना भी गाते हैं। इससे ज्यादा तुलसीदास और मानस की प्रासंगिकता का सबूत और क्या हो सकता है?

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने स्वराज के बाद जिस सुराजरूपी रामराज की कल्पना की थी, वह तुलसीदास जी ने अपने मानस के उत्तरकाण्ड में रामराज्य की विशिष्टताओं के साथ वर्णित किया है। नवजीवन पत्र में गांधी जी के तुलसी मानस के बारे में बार—बार लिखते रहते थे कि रामराज्य फिर स्थापित हो नहिं। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने भी साकेत में मानसकार का ऋणी होना स्वीकार किया है।

आज मानस और तुलसीदास पर नारी विमर्शवादियों के तीखे और आक्रमण होते हैं कि उन्होंने नारी के प्रति न्यायपूर्ण शब्दों का प्रयोग नहीं किया। तुलसी ने रामचरितमानस के नारीपात्रों सुनयना, कौशल्या, सुमित्रा, सीता, अनुसइया, शबरी आदि के चरित्र में ऋषि चेतना द्वारा प्रदत्त मूल्य, मान, मर्यादा को देखा और प्रशंसनीय भावों को उनसे जोड़ा तथा कामरूपी शूपर्नखा, क्रोधरूपी ताड़कास लोभरूपी मन्थरा और अहंकाररूपी लंकिनी को उचित दण्ड दिलवाया जबकि मोह रूपी त्रिजटा को जगतजननी सीताजी की सेविका के रूप में परिवर्तित होने के कारण छोड़ा क्योंकि जगत में काम, क्रोध, लोभ, अहंकार तो त्यागने ही हैं, पर सात्विक मोह तो प्रभु के साथ जोड़ता है।

रामचरितमानस पर आरोप लगाने वाले अक्सर एक दोहे – ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, सकल ताडऩा के अधिकारी, को लेकर विवाद खड़ा किया करते हैं। इस दोहे को पढ़ कर ही उ.प्र. विधानसभा में रामायण सिंह नामधारी एक विधायक ने राचरितमानस के पन्ने फाड़ दिये थे। तुलसीदास जी के द्वारा पशु नारी को लेकर जो चिल्ल पौं हुई वह चिल्ल पौं गंवार शब्द को लेकर नहीं मचाई। सूकरक्षेत्र शोध संस्थान के अध्यक्ष एवं निदेशक डॉ. नरेश चन्द्र बंसल कहते हैं कि – मानस में वर्णित पशु नारी में पशु विशेषण है, जो विशेष्य नारी (नारी जाति) में से पाशवी नारियों अर्थात् पशु प्रवृत्ति की दुश्चारिणी नारियों को फटकार की बात करता है। साहित्य में पशुनारी का ही नहीं पशु नर का भी उल्लेख मिलता है – गिरि ते ऊँचे रसिक मन बूड़े बहे हजारू। वहै सदा पशु नरन कों, प्रेम पयोधि पगारू (बिहारी सतसई)। इसी प्रकार गंवार शब्द के लिए डॉ. बंसल का कहना है कि गंवार शब्द किसी गांव निवासी या धरतीपुत्र—किसान को प्रयोग नहीं किया गया है, यह ग्रामीण जीवन से भ्रष्ट, अशिक्षित, भोंदू/मूर्ख जैसे नागरिकों के लिए है। तुलसी की भाषा के ज्ञाता स्व. प्रेमनारायण गुप्त ने तुलसीदास जी की भाषा को सौकरवीय भाषा कहा है। सूकरक्षेत्र के तीर्थ पुरोहित गंगागुरूओं के पास सुरक्षित तीर्थ यात्रियों की वहियों में गांव शब्द को गांव व शहर दोनों के लिए प्रयुक्त किया गया है। इसलिए गंवार गांव का निवासी नहीं है। शूद्र शब्द का भी अर्थ आज की शूद्र जातियां नहीं बल्कि असंस्कारित पुरुष है। हमारे शास्त्रों ने भी संस्कारों से हीन व्यक्ति को ही शूद्र संज्ञा दी है। इस प्रकार देखा जाए तो इन शब्दों में से कहीं भी किसी समुदाय के प्रति कोई बात कही ही नहीं गई है।

महाकवि तुलसीदास ने मानस में दुर्गुणों को समाप्त करने के अनेक उपाय बतलाए हैं। वे अपने साहित्य से सभी के लिए कल्याणकारक सन्तप्रवृत्ति के समाज की रचना करने में सफल हुए हैं। उनका सम्पूर्ण सृजन विशेषत: रामचरितमानस आज ही नहीं, भविष्य में भी उसी प्रकार सदुपयोगी तथा प्रासंगिक रहेगा। जो लोग सत्य और प्रेम सामीप्य का रसानंद पान करना चाहते हैं, शबरी और अहिल्या की भाव विह्वलता उनके विश्वास को दृढ़ करती है – कबहु तो दीनदयाल के भनक परेगी कान। सत्य और प्रेम का निवास पर्णकुटी में हो या निषादराज के यहां; कोल, भील, किरात, वानर, रीछों के साथ हो अथवा ऋषि-मुनियों के आश्रमों में चित्रकूट व पंचवटी में, वहां सभी जीव अपने वैर भाव को नष्ट कर देते हैं।

अवध के सत्ताधीश राम का सामीप्य राम के अनुजों व सीता के अतिरिक्त जिन अन्यों को प्राप्त हुआ वे थे – जामवन्त, अंगद, नल-नील, सुग्रीव व हनुमान आदि। इन सभी ने राम को अपनी कार्यकुशलता से प्रभावित किया था। तभी तो राम ने सभी को सम्मानित किया। उन्होंने अनुजों व सीता को सिंहासन पर स्थान दिया हनुमानजी ने सम्मान में माँगा था – बसहु राम सिय मानस मोरे, इसलिए राम जी ने उन्हें अपने राजसिंहासन के समीप्य में स्थान दिया। जो सत्ताधीश के मानस में बसते हैं और योग्य हैं, वही सर्वोच्च स्थान पाते हैं। राम ने चयन में नर, रीछ और वानर नहीं देखा, समर्पण देखा। हनुमान के चयन में वशिष्ठ की कोई भूमिका नहीं थी। रामचरितमानस में व्यक्ति का सर्वश्रेष्ठ प्रबंधन मिलता है। जो जिस योग्य है, उसे वैसा ही काम दिया गया। जो योग्य नहीं, वह पीछे बैठा दिखता है। इसलिए मानस में जहां वशिष्ठ की आवश्यकता है, वहां सुमन्त व हनुमन्त भी पीछे हैं। राम ने द्रुतगामी कार्यों के लिए ज्ञानियों में अग्रगण्य हनुमानजी का चयन किया, राजनीति के लिए राजदूत अंगद को बनाया, वनवास में रहने के लिए स्थान एवं आवास की सलाह ऋषियों से ली, केवट से नौका मांगी, लंका के लिए सेतु का निर्माण नल—नील से करवाया। जब संग्राम में रावण व मेघनाथ आए, तब स्वयं राम एवं लक्ष्मण आगे खड़े हुए। कार्य के अनुसार मानस में योग्य पात्रों का सदैव आरक्षित किया गया।

वर्तमान में एक शब्द प्रचलन में है राजनीति। जब राजा होते थे तब राज्य सत्ता के संचालन की राजा की जो नीति थी, उसे राजनीति कहा जाता था। आज इस शब्द को अपमानित किया जाता है, वैश्या कहा जाता है। आज दल है दलनीति है या प्रतिपक्ष को पटखनी देने की नीति है राजनीति कहां? आज सत्ता का कोई भी अंग यह कहने को तैयार नहीं है जौ अनीति कछु भाखों भाई, तो मोहि बरजेऊ भय विसराई यानी उससे कोई अन्याय या अनीति हो जाए तो उसे बिना किसी भय के डांटा जाए। तुलसी ने तो यह भी कहा कि करयि साधुमत लोकमत नृप निय निगम निचोरिह यानी सज्जनों और लोकमत के अनुसार ही राजा कार्य करे। ऐसा न करने पर वे सावधान करते हुए कहते हैं – जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवसि नरक अधिकारी यानी जिस राजा के राज्य में प्रजा दु:खी हो, उस राजा को नरक में ही स्थान मिलता है। तुलसी के रामराज्य में कोई भी नागरिक दु:खी, दरिद्र, दीन, दुष्चरित्र आदि नहीं होता था। शासन, प्रशासन लिपिक व सेवक सभी को अपने व्यवहार में यह लाना होगा। तभी राजनीति शब्द सार्थक होगा।